बुंदेलखंड की डायरी
मोदी को खून से लिखी बधाई
रवीन्द्र व्यास
बुंदेलखंड के महोबा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 75वें जन्मदिन पर एक अनोखा नजारा देखने को मिला। बुंदेली समाज ने इस मौके को खास बनाने के लिए अपने खून से 75 पत्र लिखकर प्रधानमंत्री को बधाई दी। आल्हा चौक स्थित अंबेडकर पार्क में आयोजित कार्यक्रम में समाज के सदस्यों ने न केवल पत्र लिखे, बल्कि मिठाई और फल भी वितरित किए।
बुंदेली समाज के संयोजक तारा पाटकर कहते हैं कि यह छठवीं बार है जब उन्होंने प्रधानमंत्री को खून से खत लिखकर शुभकामनाएं भेजीं। उन्होंने कहा,चूंकि यह प्रधानमंत्री जी का 75वां जन्मदिन है, इसलिए हमने 75 खत लिखकर भेजे है। मोदी जी ने 2047 तक विकसित भारत का जो सपना दिया है, हम इसमें उनके साथ हैं।वे अब तक वह प्रधानमंत्री को 48 बार खून से खत लिख चुके हैं। उनका कहना है कि यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक बुंदेलखंड को विशेष पैकेज, औद्योगिक विकास के लिए टैक्स-फ्री जोन और एम्स जैसी उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती। तारा पाटकर मानते हैं कि जब तक बुंदेलखंड पिछड़ा रहेगा, भारत का विकास अधूरा रहेगा, क्योंकि बुंदेलखंड भारत का दिल है।
परंपरा बनी प्रतीक
दरअसल बुंदेलखंड क्षेत्र उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विभाजित है, जिससे प्रशासनिक नियंत्रण और विकास योजनाओं में असंतुलन बना रहता है | स्वतंत्र भारत में 1956 तक बुंदेलखंड एक अलग प्रशासनिक इकाई रहा, जिसे राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर विभाजित कर दिया गया | बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाये जाने की मांग हालांकि काफी पुरानी है पर १९८० के दशक से इसने जोर पकड़ा, एमपी की अपेक्षा यूपी में यह मांग ज्यादा प्रबल है |
बुंदेलखंड अलग राज्य की मांग के पीछे मांग करने वालों के तर्क हैं कि क्षेत्र में बेरोजगारी और संसाधनों की कमी के कारण लोगों का बड़े शहरों की ओर पलायन लगातार बढ़ा है, जो सामाजिक-आर्थिक संकट को बढ़ावा देता है। अलग राज्य बनने से स्थानीय स्तर पर योजनाओं का क्रियान्वयन बेहतर होगा। बड़े राज्यों में बुंदेलखंड की राजनीतिक ताकत कमजोर रह गई है, जिससे यहां के मुद्दे आम जनमानस तक प्रभावी रूप से नहीं पहुंच पाते। अलग राज्य राजनीतिक आवाज़ को सशक्त करेगा। क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत और बोली को संरक्षित करने के लिए स्थानीय प्रशासनिक इकाई की आवश्यकता को प्रमुख तर्क माना जाता है।
देश में हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे छोटे राज्य बन चुके हैं। बुंदेलखंड के लिए भी यही तर्क दिया जाता है कि अलग राज्य बनने पर क्षेत्रीय भाषा, संस्कृति, और स्थानीय प्रशासन को बढ़ावा मिलेगा | अलग राज्य के समर्थक मानते हैं कि राष्ट्रीय दलों की घोषणा-पत्र में मांग रह-रहकर उठती है, पर सत्ता में आने के बाद प्राथमिकता नहीं दी जाती | क्षेत्रीय पार्टियां और विधायक बार-बार सदन में यह विषय भी उठाते रहे हैं|
डिस्टलरी से फैला जल-जहर
छतरपुर ज़िले के नौगांव कस्बे और उसके आसपास बसे गांवों में बीते कुछ महीनों से एक असहनीय माहौल बना हुआ है। जैसे ही सूरज ढलता है, हवा में घुली बदबू और ज़हर लोगों का जीना दूभर कर देता है। यह बदबू किसी प्राकृतिक स्रोत से नहीं, बल्कि नौगांव स्थित कॉक्स इंडिया डिस्टलरी से निकलने वाले अपशिष्ट से आ रही है।
बदबू और बीमारी का गाँव
नौगांव से लेकर चंद्रपुर, शिकारपुरा, चांदोरा, दोरिया, खम्मा, रावतपुरा और धवर्रा — लगभग आधा दर्जन से अधिक गांव अब इस फैक्ट्री के असर से कराह रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि सुबह-शाम तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है।घरों के आँगन में बैठना मुश्किल।बच्चों का पढ़ाई पर ध्यान नहीं लगना।बुज़ुर्गों को आंखों से पानी, सिरदर्द और सांस लेने में तकलीफ।जितनी गहरी बदबू है, उतनी ही गहरी चिंता भी लोगों के मन में बैठ चुकी है।
पानी जो जीवन नहीं, मौत देता है
कॉक्स डिस्टलरी से निकलने वाला केमिकलयुक्त पानी पास की सीलप नदी और खुले नालों में डाला जा रहा है। एक किलोमीटर का जलस्रोत पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। कुएं, हैंडपंप, यहां तक कि ट्यूबवेल तक दूषित हो गए हैं। स्थिति यह है कि लोग कहते हैं, “अब तो नहाने के बाद भी शरीर से बदबू आती है।किसानों के खेत बर्बाद हो रहे हैं। फसलें सूख रही हैं। मवेशी बीमार होकर गिर रहे हैं। किसान नरेंद्र यादव कहते हैं, इस पानी से सिंचाई कर देंगे तो फसल पलभर में जल जाती है।
नौगांव स्वास्थ्य विभाग के बीएमओ का भी कहना है कि दूषित जल से किडनी की बीमारी और दीर्घकालिक स्वास्थ्य संकट बढ़ रहा है। गरीब मजदूर वर्ग और महिलाएं इसका सबसे बड़ा शिकार हैं।
संगठनों का प्रतिरोध और प्रशासन की सक्रियता
इस संकट पर राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने भी आवाज़ बुलंद की। भाजपा मंडल अध्यक्ष गजेंद्र सोनकिया से लेकर कांग्रेस नगर अध्यक्ष कुलदीप यादव तक कई नेताओं ने ज्ञापन देकर कार्रवाई की मांग की। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र खटीक को भी रास्ते में रोककर निवेदन किया गया।
जनदबाव बढ़ने पर प्रशासन हरकत में आया। एसडीएम, तहसीलदार और एसडीओपी मौके पर पहुंचे, निरीक्षण किया और जांच का आश्वासन दिया। लेकिन, गांवों में लोगों का भरोसा इतना कमजोर हो चुका है कि वे इसे केवल औपचारिकता मानते हैं।
कानून और कागज़ बनाम जमीनी सच
पिछले आठ साल से नियम कह रहे हैं कि फैक्ट्री की 33% ज़मीन ग्रीन बेल्ट में बदलनी चाहिए थी। लेकिन ग्रामीण दिखाते हैं उस बंजर ज़मीन को, जहां न एक पौधा है और न कोई हरियाली। आठ साल में ग्रीन जोन बस कागजी दस्तावेजों पर ही पोषित होता रहा।
एक सवाल, कई जवाब
फैक्ट्री की मौजूदगी अब सिर्फ पर्यावरण का नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन का सवाल बन गई है।क्या ग्रामीणों की आवाज़ इस बार सुनी जाएगी?क्या प्रशासन सचमुच कड़ी कार्रवाई करेगा या फिर मामला फाइलों में दब जाएगा?और सबसे अहम – क्या हमारी नदियाँ और ज़मीनें कभी इस जहरीले असर से मुक्त हो पाएंगी?
नौगांव का यह संकट किसी एक फैक्ट्री तक सीमित नहीं है। यह उस मॉडल का आईना है, जहां उद्योग के नाम पर गांव का जीवन, खेत की मिट्टी और बच्चों का भविष्य दांव पर लगा दिया जाता है। यह कहानी चेतावनी है – अगर समय रहते कदम न उठे तो जहरीला पानी सिर्फ गांवों में ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों की रगों में भी उतर जाएगा।
