पत्रकारों के सम्मानजनक वेतन और सुरक्षा में नाकाम सरकार ,चिंता का विषय
डॉक्टर सैयद खालिद कैस एडवोकेट
लेखक ,समीक्षक,आलोचक,विचारक।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ अपनी दुनिया से बाहर निकल कर आसपास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने का अधिक वक्त हमारे पास नहीं होता। ऐसे में पत्रकार विभिन्न संकटों को झेलते हुए हमारे लिए एक खबर वाहक का काम करते हैं। पत्रकार केवल खबरे पहुंचाने का ही माध्यम नहीं है बल्कि यह नये युग के निर्माण और जन चेतना के उद्बोधन एवं शासन-प्रशासन के प्रति जागरूक करने का भी सशक्त माध्यम है।
यह एक स्वस्थ, आदर्श एवं जागरूक लोकतंत्र राष्ट्र के लिये अच्छा है कि अदालतें समय-समय पर अभिव्यक्ति की आजादी को संबल प्रदान करते हुए निर्भीक एवं स्वतंत्र पत्रकारिता को बल देती रही है। लेकिन विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे राजनेता एवं सरकारें रह-रहकर पत्रकारों को डराने-धमकाने से बाज नहीं आते। हम देश में आम जनमानस को भी इतना जागरूक एवं सतर्क नहीं कर पाये कि वे अपने निष्पक्ष सूचना पाने के अधिकार के प्रति जागरूक हो सकें।
पत्रकारों के सम्मानजनक वेतन और सुरक्षा के प्रति सरकार का नज़रिया अभी भी एक बड़ा सवाल है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा है कि पत्रकारों के विरुद्ध सिर्फ इसलिए आपराधिक मामला नहीं दर्ज किया जाना चाहिए क्योंकि उनके लेखन को सरकार की आलोचना के रूप में देखा जाता है। यह टिप्पणी पत्रकारों की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।
पत्रकारों पर हमले, धमकियां और हत्याएं आम बात हो गई हैं। पत्रकारों को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ सकती है, खासकर जब वे संवेदनशील मुद्दों पर रिपोर्टिंग कर रहे हों। सरकार की उदासीनता के कारण पत्रकारों को अपनी सुरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है।ऐसे हालत में सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कठोर पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करना चाहिए। पत्रकारों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने के लिए सरकारी विज्ञापनों द्वारा आर्थिक संबल दिया जा सकता है।सरकार को पत्रकारों के हितों के प्रति संवेदनशील होने और उनकी सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए काम करने की आवश्यकता है।
भारत देश में पत्रकारिता के महत्व को नकारा नहीं जा सकता । पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पत्रकारिता सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने में मदद करती है। पत्रकारों की स्वतंत्रता और सुरक्षा लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है।
यदि हम पत्रकारों के सम्मानजनक वेतन और सुरक्षा की बात करेंगे तो आजादी के साथ दशक बाद भी पत्रकारों के साथ कुठाराघात ही दिखाई देता है। पत्रकारों के लिए सम्मानजनक वेतन और कार्यस्थल की मांग तथा उद्योगपतियों( कारपोरेट ), राजनेताओं और बाहुबलियों के दबाव में आये बिना वे स्वतंत्र पत्रकारिता कर सकें इसीलिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 देश में क़ानून के रूप में लाया गया था. उसमें अंतर्निहित वेतन बोर्ड का गठन समय समय पर करके उनकी सिफारिशो के अनुसार पत्रकारों तथा गैर पत्रकार प्रिंट मीडिया कर्मचारियों को वेतन दिया जाना था. देश में 2008 में आखरी वेतन बोर्ड गठित हुआ जिसकी सिफारिशें नवम्बर 2011 से लागू हुईं, इसके बाद 2018-19 में पुनः वेतन आयोग गठित होना था किन्तु भाजपा की मोदी सरकार ने न नया आयोग गठित किया न ही पिछले आयोग की वेतन सिफारिशें व सुप्रीम कोर्ट का आदेश न मानने वाले मीडिया समूहों पर कोई कार्यवाही की. और तो और नयी श्रम संहिता के नाम से पत्रकारों के लिए बने वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 को और कमजोर कर दिया, वेतन बोर्ड गठन के क़ानून को भी ख़त्म कर दिया ताकि कारपोरेट गोदी मीडिया के दबाव में पत्रकार मजबूर हो कर काम करता रहे।इन निराशाजनक स्थितियों के बीच पत्रकारों की एकजुटता बनाये रखने के लिए पत्रकारों की ट्रेड यूनियनें लगातार संगठित होती रही हैं। इस सबके बावजूद आज सात दशक बाद भी पत्रकार अपने आपको को ठगा महसूस कर रहा है।