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जब बारिश वरदान नहीं, अभिशाप बन गई — बुंदेलखंड की डूबती ज़मीन और टूटती ज़िंदगियाँ।

जब बारिश वरदान नहीं, अभिशाप बन गई — बुंदेलखंड की डूबती ज़मीन और टूटती ज़िंदगियाँ।


रवींद्र व्यास

अधिकांश समय अवर्षा और सूखा का सामना करने वाला बुंदेलखंड इन दिनों अत्याधिक वर्षा से बेहाल है | वर्षा ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं , बुंदेलखंड में बने बांध और तालाब लबालब हो गए हैं ,| बांधो के गेट भी खोले गए हालात तटवर्ती इलाकों में  जमीन का कटाव और लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा | खरीफ की फसल पुरे बुंदेलखंड इलाके में चौपट हो गई | हालांकि सरकार हर जिले में नुकशान का सर्वे कराने  में जुटी है | औसत वर्षा का आंकड़ा भी कई  जिले ने पूर्ण कर लिया है , कुछ जिले ऐसे भी जहाँ औसत से ज्यादा वर्षा सिर्फ १५ दिन में हो गई | दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत बाढ़ और वर्षा के दौरान बुंदेलखंड में हुई | बाढ़ बनाम जल त्रासदी के भौतिक और आर्थिक पक्ष को तो हर कोई देख रहा है ,पर इसके दूसरे पक्ष को नजरअंदाज किया जाता रहा है | 


"सारी फसल पानी में गल गई, अब बच्चों को क्या खिलाएंगे?"यह कहते हुए छतरपुर जिले के किसान गोविन्द के चेहरे पर नमी सिर्फ बारिश की नहीं थी, उसमें चिंता और बेबसी की धाराएँ भी थीं। कभी पानी की एक-एक बूंद को तरसने वाला बुंदेलखंड, इस बार पानी से त्रस्त है। ये कहानी अकेले गोविन्द की नहीं है बल्कि बुंदेलखंड के हर किसान के चेहरे पर इ ही बेबसी और निराशा देखने को मिल रही है |  

 खड़ी फसलें बिछी, उम्मीदें धंसी 

इस साल जुलाई और अगस्त में बुंदेलखंड के कई जिलों में सामान्य से  70 से 200  प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई। बांदा, हमीरपुर, निवाड़ी ,टीकमगढ़ और छतरपुर आदि बुंदेलखंड के जिलों में यह पानी खेती के लिए वरदान नहीं बन पाया — मक्का, मूंग, उड़द, तिल, मूंगफली जैसी खरीफ फसलें या तो बीज पड़ते ही गल गई, या पौधा बनते  ही मर गईं।|   | बुंदेलखंड की 78 फीसदी आबादी का अर्थ तंत्र खेती से चलता है , दशकों तक सूखे की मार झेलने वाला बुंदेलखंड के किसान इस बार अत्याधिक वर्षा से बेहाल हो गए हैं |  खरीफ की फसल  उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है , मक्का, ज्वार ,बाजरा ,मूंगफली ,  तिल, मूंग,उड़द  की फसल चौपट हो गई है | इसके साथ ही बुंदेलखंड क्षेत्र में होने वाली पान की फसल को भी नुकसान पहुंचा है | टीकमगढ़ की किसान रामसखी  कहती हैं —"हमने बीज कर्ज़ लेकर खरीदे थे। पहली बारिश में खेत बोए और दूसरी ही बारिश में बहा ले गई सब कुछ।" कर्ज लेकर बीज और खाद लेने वाले किसानों ने इस बार मानसून से अच्छी फसल की उम्मीद लगाई थी | वर्षा ऐसी मेहर बान हुई कि सारे सपने तबाह कर दिए | 

घर भी गिरे और उम्मीदें भी टूटी, 


, बाँध ,तालाब- नदी नाले उफान पर आए , तो शहर और गांवों की गलियाँ गंधाती जलभराव से भर गईं।बारिश की मार सिर्फ खेतों तक सीमित नहीं रही।  बुंदेलखंड के हर जिले से  कच्चे घर गिरने के समाचार के साथ इससे होने वाली  मौतों की ख़बरें भी सामने आई हैं | लोगों के घरों में जब पानी भरा और गाँव जलमग्न हुए तो  कुछ लोगों की मौत तो सिर्फ इस कारण से हो गई क्योंकि उनके पास इलाज के लिए पहुँचने का रास्ता नहीं था | उलटी दस्त का प्रकोप बड़ा सो अलग से | बाढ़ और अति वृष्टि के कारण बुंदेलखंड के दो दर्जन से ज्यादा लोग असमय काल के गाल में समा गए | 

वर्षा का दौर 


बुंदेलखंड में 1982 और  1992 के बाद इतनी अधिक  बारिश देखने को मिली है , १९९२ में  बुंदेलखंड ने  बाढ़ का सामना तब किया था जब वर्षा का दौर लगभग  खत्म हो चुका था | सितम्बर माह में हुई बारिश ने  सैकड़ों घरो और गाँवों को नष्ट कर दिया था | इस बार की   भारी बारिश  मानसून के शुरुआत में ही आ गई | जिसने  ना सिर्फ घर खेत बर्बाद किये बल्कि  नदी ,तालाबों और बांधो के भराव क्षेत्र में बने घरों को भी नुकशान पहुंचाया  |  तालाबों के भराव क्षेत्र में आलीशान बाजार और मकान बन गए हैं, जो बारिश के पानी को रोकने या संग्रहित करने में विफल हैं। हालांकि इस बार प्रकृति ने बांध,  तालाब,नदी ,नालों का सीमांकन कर दिया है, सरकारी अमला इन पर कब कार्यवाही करता है,यह देखने वाली बात होगी।



   आपदा का अन्धकार 


    जब इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं आती हैं , तो प्रारंभिक  तौर  पर  हर कोई उससे हुए नुकसान का आंकलन करने लगता है | जिनमे मुख्य रूप से मौतों का आंकड़ा , गिरे घर और इमारतें , बाँध , पुल , पुलिया ,सड़कों, फसलों  आदि के  नुक्सान पर चर्चा शुरू हो जाती है | आपदा का यह वह भौतिक और जीवंत पक्ष है जो सबसे ज्यादा नीति निर्माण में प्रभावी रहता है | इसके विपरीत अगर इसके दूसरे पक्ष को देखें तो वह हालात कही ज्यादा भयावह  प्रभाव छोड़ते हैं |  बड़ामलहरा के वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल शर्मा बताते हैं कि  छतरपुर जिले  के बड़ामलहरा क्षेत्र   1979--80 के दौरान भयंकर सूखा पड़ा था,|   जुलाई  मे मानसूनी वर्षा  के चलते  बोई गई खरीफ फसल , बाद मे वर्षा ना होने के चलते फसलें नष्ट हो गई |  भयंकर अकाल पड़ने से अपराधिक प्रवृति के लोगो ने लूटपाट का रास्ता चुन लिया , जिसके चलते जिले मे एक दर्जन डकैत गिरोह पनप उठे जिनमें चितर सिह,सौबरन सिंह, सूरज,मथुरा,भैयन गुरु, गब्बर सिंह आदि गिरोहों के आतंक के चलते एक वार फिर बुन्देलखण्ड की वादियां काप उठी थी  लूटपाट से लोग सहम उठे ।सूखे से उत्पन्न हालात तो एक वर्ष मे समाप्त हो गये किन्तु डकैती समस्या को समाप्त होने मे दस  वर्ष से अधिक का समय लग गया ।इसी  दशक मे  किसान खेतिहर मजदूरों ने रोजगार की तलाश मे पहली बार महानगरों की ओर पलायन  किया ।इसके पूर्व लोग काम की तलाश मे महानगरों को पलायन नहीं करते थे । पचास फीसदी से अधिक पलायन जब हो  चुका तब सरकार की नीद खुली  और   राहत कार्य  शुरू हुए  ।गरीब तबके के लोगों ने जहां काम की तलाश मे पलायन किया वहीं उस दौर मे बड़ती डकैती समस्या लूटपाट से त्रस्त होकर गांव मे आर्थिक रुप से सम्पन्न लोगों ने शहरों एवं कस्बों मे पलायन कर अपना आशियाना बना लिया जिसके चलते शहरों एवं कस्बों की जनसंख्या का अनुपात बड़ गया एवं गांव वीरान हो गये ।  राम कृपाल  कहते है कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है वर्तमान परिवेश मे कुछ इस तरह की स्थितियां निर्मित हो रही है ।लगातार हो रही बारिश के चलते नब्बे फीसदी खेत खाली पड़े है । रोजगार की तलाश मे पलायन का सिलसिला शुरू हो चुका है ।गांव मे अपराधों का ग्राफ बढ़ने लगा है जो अच्छे सकेत नही ।अगर समय रहते प्रशासन सजग नहीं हुआ तो परिणाम खतरनाक साबित हो सकते है ।


पलायन , के दूरगामी असर भी देखने को मिलते हैं , यह ना सिर्फ सामाजिक विघटन का कारण बनता है अपितु  आर्थिक और सामजिक शोषण का भी एक बड़ा कारण बनता है | इन पर किसी भी काल की सरकार के नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं जाता |  


   दरअसल बुंदेलखंड सदियों से पानी की कमी  के लिए मशहूर रहा है। यहाँ कभी तालाबों, झीलों और कुओं की अद्भुत परंपरा थी।आज अति वर्षा से यह प्रश्न उठता है:क्या समस्या बारिश की है, या हमने अपनी परंपराओं और संसाधनों को संभालने में चूक की है?


बुंदेलखंड जैसी भौगोलिक दृष्टि से संवेदनशील जगह पर अति वर्षा किसानों के लिए आपदा और आम जनता के लिए संघर्ष की कहानी बन जाती है। एक ओर जहाँ सूखे से लड़ने की योजनाएँ बनाई जाती हैं, वहीं अब अति वर्षा से होने वाली बाढ़ और नुकसान पर भी उतनी ही गहराई से सोचने की जरूरत है। जरूरत है  नीतियों में संवेदनशीलता और जमीनी हकीकत की जमीनी हकीकत को समझने की।

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