पहचान खोते नौरता और मामुलिया
रवीन्द्र व्यास
गुजरात का प्रसिद्ध गरबा नृत्य नवरात्रि के समय पूरे देश में अपनी संस्कृति का परिचय देता है| गरबा की तरह बुंदेलखंड की धरती पर नौरता और मामुलिया जैसे लोकोत्सव कभी बुंदेलखंड की लोक संस्कृति की पहचान थे | जो नवरात्रि के दिनों के ख़ास उत्सवों में सम्मलित थे | नवरात्रि के नौ दिन बुंदेलखंड के गाँव की चौपालों और शहरों में एक ऐसा रंग बिरंगा संसार बस जाता था जो हर किसी का मन मोह लेता था | जो संस्कार से रचे बसे होते , लोकचित्रों में बुन्देली गरिमा होती थी । कुवारी कन्याएँ एक साथ गीत संगीत, नृत्य चित्रकला और मूर्ति कला, साफ-सफाई संस्कारों से मिश्रित लोकोत्सव नौरता मनाती थी , आज गाँव के अधिकाँश चौपाल इस लोक संस्कृति से अछूते हैं तो शहरों में आधुनिकता का ऐसा नशा छाया कि नव पीढ़ी तो इसे जानती ही नहीं है |
दरअसल नौरता और मामुलिया केवल उत्सव नहीं हैं, और ना ही केवल नवरात्रि में खेले जाने वाला कन्याओं का एक खेल भर है, बल्कि लोकजीवन की गहराइयों से उपजी भावनाओं, भय और श्रद्धा का अनोखा संगम है। बेटियों के मन की लय, लोकजीवन की सच्चाई और आत्मा की झंकार हैं। इनमें भय भी है, आस्था भी है, खेल भी है और दर्शन भी। यही बुंदेली संस्कृति की खासियत है कि साधारण-सा लोकगीत भी जीवन और मृत्यु, सुख और दुख, स्त्रीत्व और मातृत्व की गहन कथा कह जाता है।
नौरता – भय और आस्था का संगम
अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होते नौ दिनों की भोर जब ओस की बूंदों में चमकने लगती है, तो गांवों की चौपाल और नगरों के चबूतरे जीवंत रंगमंच बन जाते हैं। कुंवारी बेटियां गोबर-लिपे आँगन में रंग बिरंगे चौक सजाती हैं और मिट्टी से भयंकर दैत्याकार मूर्ति गढ़ती हैं, जिसे सुअटा कहते हैं। यह दानव रूप है, फिर भी पूजा में उसे बुलाया जाता है। लाल आंखें, विकृत चेहरा — किंतु बेटियों के हाथों में चना, ज्वार, रंगोली और गीतों की कोमलता उसके भयावह रूप को ढक देती है।लोकमान्यता है कि कन्याओं की गुहार सुनकर माँ गौरी ने उस भयानक भय, उस दानव का नाश किया। यह आश्वासन कन्याओं को हर वर्ष यह खेल दोहराने को प्रेरित करता है।
गीतों की गूंज —
"नारे सुअटा… गौरा देवी क्वांरे में नेहा तोरा..."
यह केवल गाना नहीं, बल्कि भय और विश्वास का संवाद है। लोक कथाओं के अनुसार यह दैत्य कन्याओं को निगल जाता है, इसलिए उससे बचाव की प्रार्थना मां गौरा से की जाती है। बेटियों की आस्था, उनकी निश्चल हंसी-ठिठोली, कदमों की थिरकन और चौक की रंगत—सब मिलकर लोक संस्कृति का एक अनोखा पुल बना देते हैं।
नौरता लोकदृष्टि का गहरा सत्य प्रकट करता है—जिस संकट को मिटा न सको, उसे आस्था और उत्सव से घेर लो। भय को भी खेल बना दो और देवी को उसमें आमंत्रित कर लो। यही बुंदेलखंड का लोक ज्ञान है, जो दैत्य को भी लोकमंगल के उत्सव में ढाल देता है।
मामुलिया – नारीत्व की मूर्ति
क्वांर मास के कृष्णपक्ष में बुंदेलखंड की रातें एक और अद्भुत लोक पर्व की साक्षी बनती हैं—मामुलिया। बेटियाँ बेरी की काटेदार डाल तोड़कर लाती हैं, उसे फूलों, फलों और मेवों से सजाती हैं। वह कांटेदार टहनी उनकी बहन, सखी और देवी का रूप ले लेती है। चौक रचकर, हल्दी और अक्षत से यह पूजन किया जाता है।
गीत गूंजता है —
"मामुलिया के आगये लिवउआ, झमक चली मोरी मामुलिया..."
यह गीत नारी जीवन का साक्षात दर्शन है—फूलों जैसी कोमलता, काँटों जैसी संघर्षशीलता और फलों जैसी सृजनशीलता। मामुलिया जीवन की क्षणभंगुरता और बेटियों की यात्रा का प्रतीक है। श्रृंगार से सजी लड़की की तरह वह डाल विधि-विधान से पूजी जाती है, और फिर उसके "लिवउआ" आ जाते हैं—जैसे कन्या का बिदा हो जाता है।
मामुलिया स्त्रीत्व का शाश्वत संदेश है—संस्कार, संघर्ष और उदारता का। इसमें बेटी, सखी और देवी—तीनों रूप समाहित हो जाते हैं। यही कारण है कि लोकमानस ने मामुलिया को देवी का स्वरूप माना।
भावनात्मक समन्वय
नौरता और मामुलिया दोनों की धुरी बेटियाँ ही बनती हैं। नौरता में वे सुअटा से रक्षा की प्रार्थना करती हैं और माँ गौरा को पुकारती हैं, तो मामुलिया में अपने जीवन-संसार की गहरी सच्चाई को रूपाकार देकर देवी के रूप में पूजती हैं।
ये उत्सव इस बात के साक्षी हैं कि बुंदेलखंड की लोक संस्कृति कितनी संवेदनशील और गहन है। भय को भी उत्सव बना लेना और जीवन को दर्शन में ढाल देना—यही बुंदेली संस्कृति का भावात्मक वैभव है।
नवरात्र के वे नौ दिन जब कन्याएँ संग-संग गीत गाती हैं, उसकी पुकार करती हैं, और आखिरी दिन उसकी “मरग” करती हैं — तो यह लोक का भावनात्मक नाटक है। भय का उल्लंघन है। असुर पर विजय का उत्सव है। और भोले गाँव का विश्वास है कि माँ गौरी सदा उनकी रक्षा करेंगी।


