बारी ने खा लिया खेत अब काहे का पर्यावरण दिवस
प्रभविष्य के लिये खतरे की घंटी। उजड़ता पर्यावरण और बढ़ता प्रदूषण। पहाड़ी क्षेत्रो में घुलते गलेशियर और दरकतें पहाड़। कमोवेश यह चिंता करने वाले हालात सभी जगह हैं। बुंदेलखंड की बात करे तो क्रेशर और अन्य बेशकीमती पत्थरो के पहाड़ो को नोच कर गहरी खाइयो में बदल दिया गया हैं। नदियों की खुलेआम अस्मिता के साथ रेत माफिया खिलवाड़ कर रहे हैं। विरासत में मिले तालाबों को माफियाओ को सौंप दिया गया हैं। दिनों दिन भू गर्भ में पानी का जाता स्तर इसका परिणाम हैं क्योंकि परम्परागत जल स्रोतो के संरक्षण की योजना तो बनती हैं पर वह नौकरशाह, नेता और ठेकेदारों का पर्यावरण सुधार जाती हैं। छतरपुर के तालाबों की मन की व्यथा किसी से छुपी नहीं हैं। जिन्हे एनजीटी, हाईकोर्ट और स्थानीय अदालत के आदेश भीं अतिक्रमण मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। एनजीटी भोपाल ने हाल ही में एक मामले को लेकर तल्ख़ टिप्पणी कर अधिकारियो पर प्रहार कर सरकार को जिम्मेदारी से अवगत कराया हैं। इन टिप्पणी से होगा क्या, ज़ब बारी ने ही खेत को निगल लिया हो। साफ तौर पर जिन कंधो पर इन जल सरचनाओं की सुरक्षा, इन्हे जिन्दा करने की जिम्मेदारी थी वहीं विलेन हो गये? खुद का स्वार्थ हावी रहा और जल संरक्षण की झीले अब अपना वजूद खोती जा रही हैं। जिम्मेदार ठहाका लगा रहे हैं और इन तालाबों की मन की बात कोई नहीं सुन रहा। यह कैसा पर्यावरण दिवस, जो एक दिन के लिये। भाषण, प्रतियोगिता, ज्ञान सागर पर असलियत में एक तमाशा। ठीक उस नौटंकी की तरह जिसमे मदारी की डुगडुगी पर जानवर नचाये जाते हैं। पर्यावरण भीं इसी तरह नाच रहा हैं और जिम्मेदार मदारी की भूमिका में हैं। जिनके असली किरदार तो रेत माफिया, पत्थर माफिया, भू माफिया हैं। जो मदारी के इशारे पर सब कुछ नेस्तनाबूत कर देना चाहते हैं।.✍️(धीरज चतुर्वेदी, बुंदेलखंड )